ईश्वर से साक्षात्कार कैसे हो?


 इन सभी प्रश्नों के उत्तर मानव जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। मनुष्य धरती के किसी भी भाग में रहता हो, किसी भी धर्म को मानता हो, उसका रूप, रंग, कद–काठी जैसा भी हो, वह स्त्री हो या पुरुष—इन प्रश्नों का महत्व सभी के लिए समान रूप से है। ये प्रश्न किसी धर्म, सभ्यता या संस्कृति से नहीं, अपितु सीधे मानव जीवन से संबंधित हैं। मनुष्य चाहे समाज में रहे या अकेले, इन प्रश्नों का उद्गार उसके मस्तिष्क में अवश्य होता है। जब तक जीवन है, ये प्रश्न हमारे साथ जुड़े रहेंगे; और जब जीवन समाप्त हो जाएगा, तभी इन प्रश्नों का भी अंत होगा।

तो आइए, आरंभ करते हैं—“जीवन क्या है?” यह प्रश्न प्रत्येक जीव के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। आखिर जीवन क्या है? जीवन की शुरुआत कैसे हुई? जीवन का महत्व क्या है? जीवन कौन प्रदान करता है? क्या कोई शक्ति जीवन पर नियंत्रण रखती है या यह एक स्वचालित प्रक्रिया है? क्या मृत्यु के बाद जीवन समाप्त हो जाता है? क्या पुनर्जन्म होता है या नहीं?इन सभी प्रश्नों के उत्तर हम सभी जानना चाहते हैं, किंतु इनका उत्तर खोजना अत्यंत कठिन कार्य है। कई बार संपूर्ण जीवन बीत जाता है, फिर भी मनुष्य इनका उत्तर नहीं जान पाता, क्योंकि बिना आत्मज्ञान और आत्मानुभूति के इन प्रश्नों का उत्तर खोजना संभव नहीं है। ये ऐसे प्रश्न हैं जो आत्मजागृति के माध्यम से ही मनुष्य के अंतरतम में उत्पन्न होते हैं।

मानव जीवन में प्रश्न दो प्रकार के होते हैं।

 पहला प्रकार वे प्रश्न हैं जो मनुष्य बाह्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए करता है, जिससे उसे व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त होता है और वह अपने जीवन को सरलता और सुगमता से जी सकता है। जितने भी प्रश्न हम अपने जीवन को सुखद, सरल और समृद्ध बनाने के लिए करते हैं, वे सभी इसी श्रेणी में आते हैं। इन प्रश्नों का उद्देश्य है: मनुष्य के व्यवहारिक ज्ञान में वृद्धि करना, कार्यों को सहज बनाना और जीवन स्तर को उन्नत करना।

दूसरे प्रकार के प्रश्न वे होते हैं जो मनुष्य की चिंतन शक्ति से स्वतः ही उसके अंतर्मन में उत्पन्न होते हैं। ये प्रश्न व्यवहारिक दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप नहीं, बल्कि आत्मचेतना की प्रेरणा से उत्पन्न होते हैं। मेरा तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य की सोचने की शक्ति भिन्न होती है। जैसा मनुष्य सोचता है, वैसा ही वह देखता है। उसकी सोच ही उसके देखने का दृष्टिकोण तय करती है, और जैसा वह देखता है, वैसा ही ज्ञान अर्जित करता है।

एक बालक अपने परिवार को देखकर ही अपने जीवन की नींव रखता है। आत्म-प्रेरित प्रश्न बाहरी ज्ञान से नहीं, बल्कि आत्मचेतना के प्रभाव से मनुष्य के अचेतन मन में उठते हैं। जब ये प्रश्न चेतन मन में आते हैं, तो मनुष्य कुछ समय के लिए मौन हो जाता है। उस समय वह इन प्रश्नों की गहराई को समझने का प्रयास करता है—ये प्रश्न क्या हैं? मेरे भीतर कैसे उत्पन्न हुए? इनके उत्तर क्या हैं? और मुझे ये उत्तर कहाँ से प्राप्त होंगे?इन सभी बातों को लेकर मनुष्य चिंतित हो जाता है। तब अधिकांश लोग इस चिंता से मुक्ति पाने के लिए अपना ध्यान किसी अन्य कार्य की ओर मोड़ लेते हैं, ताकि ये प्रश्न उन्हें अधिक न सताएं।हर मनुष्य के भीतर आत्मचेतना होती है, और जीवन में कई बार यह चेतना जाग्रत होती है। किंतु इस संसार में बहुत ही कम लोग हैं जो अपनी आत्मचेतना के माध्यम से आत्मज्ञान की प्राप्ति कर पाते हैं। जब मनुष्य के भीतर ऐसे गहन प्रश्न उठते हैं, तो वह बेचैन होने लगता है। इस बेचैनी को शांत करने के लिए वह बाह्य ज्ञान का सहारा लेता है। उदाहरण स्वरूप, कोई व्यक्ति किसी पवित्र स्थल पर जाता है, और वहाँ की सकारात्मक ऊर्जा से उसकी आत्मचेतना जागृत होती है। तब उसके भीतर प्रश्न उत्पन्न होते हैं: ईश्वर का स्वरूप कैसा है? वे कहाँ निवास करते हैं? उनकी प्राप्ति कैसे संभव है? ईश्वर से साक्षात्कार कैसे हो?ऐसे प्रश्न चेतन मन में उठते हैं जो व्यक्ति को भीतर से व्याकुल करते हैं। कुछ समय तक वह इन प्रश्नों के उत्तर स्वयं खोजने का प्रयास करता है, किंतु अपने अल्पज्ञान के कारण असफल रहता है। तब वह इन प्रश्नों से मुंह मोड़ लेता है और आत्म-संतुष्टि के लिए धार्मिक ग्रंथों का सहारा लेने लगता है। वह अपने अचेतन मन को शांत करने का प्रयास करता है। जब चेतन मन शांत होता है, तो अचेतन भी थोड़े समय के लिए शांत हो जाता है, और मनुष्य की बेचैनी समाप्त हो जाती है। इसके बाद वह पुनः अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाता है।किन्तु कई बार अचेतन मन शांत नहीं होता और वह प्रश्न लगातार मनुष्य को व्यग्र करते रहते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति समाज और संसार से अलग-थलग पड़ने लगता है, क्योंकि उसका अधिकतर ध्यान इन प्रश्नों के उत्तर खोजने में लग जाता है। वह हर संभव प्रयास करता है कि शीघ्रातिशीघ्र इनका उत्तर पा सके। उसकी बेचैनी इतनी बढ़ जाती है कि कभी-कभी वह निराश और हताश होकर जीवन समाप्त करने तक का विचार करने लगता है।जब वह इन प्रश्नों के उत्तर जानने हेतु दूसरों से पूछता है, तो उसे पूर्ण संतोषजनक उत्तर नहीं मिलते। तब उसे लगता है कि इस संसार में इन प्रश्नों का सटीक उत्तर देने वाला कोई नहीं है। और इसी निराशा में वह जीवन से ऊबकर आत्महत्या तक का विचार करने लगता है।किन्तु जीवन को समाप्त करना इन प्रश्नों का उत्तर नहीं है। कुछ लोग अपनी व्याकुलता को शांत करने तथा इन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए समाज से अलग होकर एकांत में रहने लगते हैं। वे पूर्ण मनोयोग से इन प्रश्नों पर चिंतन करते हैं, उन्हें समझने का प्रयास करते हैं। तब उनका अचेतन मन शांत होकर चेतन अवस्था में परिवर्तित होने लगता है।इस अवस्था में मानव शरीर की ऊर्जा सकारात्मक दिशा में प्रवाहित होने लगती है, जिससे उसे आंतरिक आनंद की अनुभूति होती है। यही ऊर्जा का सकारात्मक प्रभाव उसके बाह्य व्यवहारिक ज्ञान को आत्मज्ञान में परिवर्तित कर देता है, जिससे मनुष्य को आत्मज्ञान की प्राप्ति होने लगती है।

किताब का नाम :जीवन ही सत्य है भाग:1..... Continue




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